tag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post7979139420562242565..comments2023-11-03T19:09:37.429+05:30Comments on ॥ दर्शन-प्राशन ॥: आनंद गंधप्रतुल वशिष्ठhttp://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-84251632648958536042015-08-31T17:15:55.784+05:302015-08-31T17:15:55.784+05:30सर जी प्रणाम,
आपके प्रयासों के लिए धन्यवाद। मैंने...सर जी प्रणाम,<br /><br />आपके प्रयासों के लिए धन्यवाद। मैंने ध्यान से पढ़ लिया है। अभी एक बार और पढ़ना होगा। तब हमेशा के लिए दिमाग में बैठ जाएगा। एक बार फिर आपका आभार।वीरेंद्र सिंहhttps://www.blogger.com/profile/17461991763603646384noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-78459143993529483692015-08-27T14:32:35.825+05:302015-08-27T14:32:35.825+05:30सामान्य अर्थ :
हृदय से दुःख चिंता शंका जैसे भाव ज...सामान्य अर्थ : <br />हृदय से दुःख चिंता शंका जैसे भाव जैसे ही समाप्त हुए हृदयाकाश में श्वेत प्रकाश विस्तृत हो रहे हैं। यह अनुभूति अत्यंत सुखकर है। <br />श्वेत प्रकाश (सित् धूल) का विचरण (घूमना) चहुँ दिक् है। शकुन-अपशकुन बिना जाने-विचारे, अड़चन और सामाजिक अवरोधों (दिकशूल) की चिंता किये बिना 'दिव् धूल' का आना-जाना अन्य कर्तव्य-सेवियों व गुण-सेवियों को प्रेरित कर रहा है। खिले हुए पुष्प अपने सूखने तलक उस आनंद गंध में अपनी-अपनी गंध की भागीदारी करेंगे। - ऐसा विश्वास मन में है । प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-76567443379627579722015-08-27T14:32:34.876+05:302015-08-27T14:32:34.876+05:30सामान्य अर्थ :
हृदय से दुःख चिंता शंका जैसे भाव ज...सामान्य अर्थ : <br />हृदय से दुःख चिंता शंका जैसे भाव जैसे ही समाप्त हुए हृदयाकाश में श्वेत प्रकाश विस्तृत हो रहे हैं। यह अनुभूति अत्यंत सुखकर है। <br />श्वेत प्रकाश (सित् धूल) का विचरण (घूमना) चहुँ दिक् है। शकुन-अपशकुन बिना जाने-विचारे, अड़चन और सामाजिक अवरोधों (दिकशूल) की चिंता किये बिना 'दिव् धूल' का आना-जाना अन्य कर्तव्य-सेवियों व गुण-सेवियों को प्रेरित कर रहा है। खिले हुए पुष्प अपने सूखने तलक उस आनंद गंध में अपनी-अपनी गंध की भागीदारी करेंगे। - ऐसा विश्वास मन में है । प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-21487548085909454442015-08-27T14:02:19.504+05:302015-08-27T14:02:19.504+05:30'आनंद' का भाव क्या है? कहाँ अवसित है? कैसे...'आनंद' का भाव क्या है? कहाँ अवसित है? कैसे होता है? संचारी है अथवा स्थायी? इसकी उत्पत्ति में कौन-कौन सहयोगी है? ……………… इन जिज्ञासाओं पर चिंतन अनेक काव्य-मर्मज्ञों व आचार्यों ने किया है, फिर भी अनुभवजन्य विचार अपने शब्दों में आयें तो बातचीत उपदेशात्मक नहीं रहती - ऐसा मानता हूँ। इसलिए आपसे भी अनुरोध है कि इस संदर्भ में (अपने सुभीते से) विचार रखियेगा। प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-85397866970406169402015-08-27T13:56:11.385+05:302015-08-27T13:56:11.385+05:30मित्र वीरेन्द्र, नमस्ते।
आपसे बात करने में विलम्...मित्र वीरेन्द्र, नमस्ते। <br />आपसे बात करने में विलम्ब किया। बैठक में बैठे 'प्रश्न' पर चार दिन उपरांत नज़र गयी थी। किन्तु कार्यलयीन कार्यों के बीच अभी कुछ बातचीत की छूट ले रहा हूँ। कुछ वर्षों से जब भी कोई आनंद की स्थिति उत्पन्न होती रही, 'आनंद' को इन्हीं ही पंक्तियों में गुनगुना लेता हूँ। <br /><br />'आनंद' का भाव क्या है? कहाँ अवसित है? कैसे होता है? संचारी है अथवा स्थायी? इसकी उत्पत्ति में कौन-कौन सहयोगी है? <br /><br />जब मन में 'आनंद' भाव प्रवेश करता है तब दृगशक्ति (आँखें) और घ्राणशक्ति (नाक) सक्रिय हो उठती है। वातावरण में चारों ओर श्वेत प्रकाश के तैरते परमाणु (सित् धूल) दिखायी देते हैं; उस चमकती श्वेत धूल को 'दिव् धूल' भी कह सकते हैं, अनुभव होता है जैसे क्लेश के कीटाणु अदृश्य हो रहे हों और तनावों की पपड़ियाँ सूख-सूख कर उखड़ रही हों।<br /><br />वह सित् धूल एक दिशा में या एक पट्टी पर ही नहीं टहलती अपितु वह शकुन-अपशकुन की चिंता किए बिना, बाधाओं और अड़चनों की विविधता में खोए बिना प्रकाश स्फुटित करती है। प्रकाश के उस स्फोट में आनंद की गंध इस सीमा तक समा जाती है कि घ्राण और दृग शक्तियाँ अपने-अपने आश्रयों को विस्मृत कर एक-दूसरे के ठिकानों पर जा बैठती हैं। <br /><br />इस कविता की व्याख्या बाद में करूँगा। किसी अन्य कविता की कुछ पंक्ति दोहराता हूँ <br />अये गगन की पुष्प क्यारी/ गंध आती है तुम्हारी/ लोचनों में प्यारी-प्यारी/ आयी हो ज्यों पिय हमारी।<br /><br />इसमें नासिका की विषयवस्तु का भी गुण ग्रहण लोचन कर रहे हैं। यह है तो अवैज्ञानिक किन्तु उपमान के गुणों को एकसाथ ग्रहण करने की विवशता भी है। लोचन देखने के काम के साथ-साथ सूँघने का काम भी कर रहे हैं। प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-55789407517335335572015-08-18T16:53:27.015+05:302015-08-18T16:53:27.015+05:30प्रणाम सर जी,
कविता को अर्थ समझने में थोड़ी सी कठि...प्रणाम सर जी,<br />कविता को अर्थ समझने में थोड़ी सी कठिनाई हो रही है। अगर पहले की भांति अर्थ भी लिखा मिल जाए तो आसानी हो जाए। वीरेंद्र सिंहhttps://www.blogger.com/profile/17461991763603646384noreply@blogger.com