tag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post5457194662727683075..comments2023-11-03T19:09:37.429+05:30Comments on ॥ दर्शन-प्राशन ॥: अवगुंठित विभायेंप्रतुल वशिष्ठhttp://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-15124311384602780502010-07-21T00:05:34.436+05:302010-07-21T00:05:34.436+05:30अरविन्द जी,
शब्दों से अच्छी क्रीड़ा कर लेते हैं आ...अरविन्द जी, <br />शब्दों से अच्छी क्रीड़ा कर लेते हैं आप. अवगुंठित विमाता' से प्यार पाने की कोशिश क्या मन को भ्रमित करना होगा? मार्गदर्शन के लिये आभार. <br />लिप्तता का सुख मिथ्या है जानकार कवि-कर्म में लग रहा हूँ फिर.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-26588891480900521252010-07-20T23:45:27.792+05:302010-07-20T23:45:27.792+05:30आदरणीय अमर जी,
आपकी टिप्पणी ने मुझे घेर ही लिया, ...आदरणीय अमर जी, <br />आपकी टिप्पणी ने मुझे घेर ही लिया, मैं निरुत्तर हो गया था. लेकिन कुछ देर बाद 'उत्तर' मेरे ब्लॉग शीर्षक से चिपका हुआ मिला. दर्शन के प्राशन के निमित्त ही तो ब्लॉग बना है. यदि यहाँ भी दर्शन ना मिले तो कहाँ होंगे. भक्तकवि तुलसीदास अपने प्रभु श्री राम के गुनश्रवन से ही संतुष्ट नहीं हुए, उन्होंने चित्रकूट के घाट पर दर्शन पाने की जुगत लगायी थी. यह मुझ जैसे अदृश्य को दृश्य रूप में समझने वाले दृष्टा के लिये अति-उक्ति हो सकती है. लेकिन आस्था-मंदिर के पुजारियों का मानना है कि इस युग में नाम-जाप के साथ यदि दर्शन भी हो जाएँ तो पूजा-अर्चना सफल. <br />जब तक दर्शन नहीं होते तब तक मन कल्पनाओं में व्यस्त रहता है कि वह ऐसा होगा, वह वैसा होगा. वह सुन्दर होगा वह कुरूप होगा. मन अपना कार्य करना नहीं छोड़ता, मैं इसे विराम देना चाहता हूँ. और इसे अन्यथा लेना जबरन खींचतान होगा. मैं टिप्पणियों का शतक लगाने के बिलकुल मूड में नहीं हूँ. <br />आपकी टिप्पणी से मुझे कवि लाल्टू को पढने की प्रेरणा मिली और उस स्तर तक जाने की राह दिखी. धन्यवाद. आभार.प्रतुल वशिष्ठhttps://www.blogger.com/profile/00219952087110106400noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-18600244137955413772010-07-20T19:12:57.677+05:302010-07-20T19:12:57.677+05:30अवगुंठित विभायें या विमायें -मन को न भरमायें ,काम ...अवगुंठित विभायें या विमायें -मन को न भरमायें ,काम पर लगायें ...छाया मत छूना मन होगा दुःख दूना मन!<br />बीती विभा (वरी) जाग री !Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-15533080300461704972010-07-19T17:12:14.220+05:302010-07-19T17:12:14.220+05:30यह पोस्ट आप ही के लिए लिखी गयी है------------
htt...यह पोस्ट आप ही के लिए लिखी गयी है------------<br /><br />http://darshanprashan-pratul.blogspot.com/2010/07/blog-post_7523.htmlAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-32117879784059494252010-07-19T16:00:22.392+05:302010-07-19T16:00:22.392+05:30कोई गर्वोक्ति नहीं है यह ! और कवि के गर्व से भला क...कोई गर्वोक्ति नहीं है यह ! और कवि के गर्व से भला क्या हानि ...कुछ देकर ही जाओगे ! शुभकामनायें !Satish Saxena https://www.blogger.com/profile/03993727586056700899noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-31600288374433863792010-07-19T14:28:33.306+05:302010-07-19T14:28:33.306+05:30कवि ना यों हो निराश लगाये रहो आस
दर्शन-प्राशन होग...कवि ना यों हो निराश लगाये रहो आस <br />दर्शन-प्राशन होगा फैलेगा "दिव्य" उजासAmit Sharmahttps://www.blogger.com/profile/15265175549736056144noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-23874149070392763752010-07-19T07:42:11.456+05:302010-07-19T07:42:11.456+05:30डाल क्यों रखा नयन ने पलक-पर्दा?
.....................डाल क्यों रखा नयन ने पलक-पर्दा?<br />......................... क्या लाज आती बिना उनके?<br /><br />मधुर विरोधाभासी सौंदर्य है यहाँ.<br /><br />यशस्वी होकर दिखा सकता अभी मैं.<br />......................... मैं प्रतिभा ना छिपाना चाहता.<br /><br />अहो! क्या कहा..मधुर, वीर, बहुत सुन्दर.Avinash Chandrahttps://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7213487349598555645.post-65133688370132719192010-07-19T01:06:31.291+05:302010-07-19T01:06:31.291+05:30अपने प्रभाव और सार्थकता के चलते ज्ञान स्वयँ में ही...<i><br />अपने प्रभाव और सार्थकता के चलते ज्ञान स्वयँ में ही परिपूर्ण है ।<br />अहँरहित ज्ञान तो मानो मानवीय सामर्थ्य की पराकाष्ठा है ।<br />इसके सौन्दर्य के निरुपन में तुलसीदास जी कितनी सफाई से अपने को बचा ले गये<br />" गिरा अनयन, नयन बिनु बानी " <br />यदि रूप देखने से ही तृप्ति होती हो, तो जलकुँभी का फूल भी पर्याप्त है.. पर वह है गँधहीन गुणहीन !<br />रात की रानी के अवगुँठन में गँध की जो मधुरिमा है, वह उसके रूप पर ध्यान ही नहीं जाने देती ।<br /><br />सो आपके आग्रह व्यक्तिगत हैं, उन पर कोई टिप्पणी न करते हुये, मुझे लाल्टु की एक असँदर्भित कविता याद आ रही है<br /><br />दरख़्त को क्यों इतनी झेंप<br />जब भी देखूँ<br />लाज से काँप जाता<br /><br />पूछा भी कितनी बार<br />छुआ भी सँभल-सँभल<br />फिर भी आँखें फिसलतीं<br />पत्ते सरसराकर इधर उधर<br />मानों झेंप झेंप हो बुरा हाल<br /></i>डा० अमर कुमारhttps://www.blogger.com/profile/09556018337158653778noreply@blogger.com